उबासी/जम्हाई
घड़ी के अलार्म से भी तेज मां की आवाज
दो चार जम्हाई चंद अंगड़ाईयां
एक चाय का कप, हाथ में अखबार
Tv के सामने दिन भर बैठना,
ये होता था कभी मेरा रविवार
ना खाना बनाने की चिंता, ना धोबी का ख्याल
ना रिश्तों को निभाना ना मेहमानो को संभालना
बस नाइट सूट में दिन निकालना
दुबारा उबासी आए तो चादर ओढ़ सो जाना
सोना,उठना,खाना बस यही था जिंदगी का सार
वक्त ने ऐसी करवट बदली
मेरी दुनिया की रंगत बदली
सुबह 5 बजे से ही बजने लगता कान में
7 बजे का अलार्म
सपने में आने लगा राशन धोबी का हिसाब
क्या खाना बनाना, क्या क्या है खरीदना
बच्चो की पढ़ाई, रिश्तों की निभाई
परिवार की जरूरतों का ध्यान
उबासी लेने का वक्त नहीं जम्हाई शब्द भूल गई
अंगड़ाईया जाने कहां गायब हो गई
अब क्या सोमवार क्या रविवार
सब दिन है एक समान ,
फिर भी एक अलग मजा है जिंदगी के इस दौर का
अंदर किसी कोने से कभी कभी आती है कानो में आवाज
जब तू नही मजा ले सकती जम्हाई और अंगड़ाई का
कोई हक नही है घरवालों को ज्यादा सोने का
मेरी मां जैसे अब मैं चिल्लाती हूं पतिदेव पर
उठो, काम पर लगो, उबासी लेना छोड़ो